Published: 09 फ़रवरी 2018

स्वर्ण बाज़ार का उदारीकरण : 1990-2000

प्रतिबंधात्मक स्वर्ण व्यापार के 28 वर्षों के बाद जून 1990 में स्वर्ण नियंत्रण अधिनियम को अंततः निरस्त कर दिया गया. ऐसा करने के पीछे वित्त मंत्री मधु दंडवते का सीधा-सा तर्क था : अनाधिकारिक माध्यमों के लिए खुला छोड़ने के बजाय मुक्त आयात की अनुमति देकर कर अर्जित करने में ज्यादा समझदारी है. कोई भी प्रति 10 ग्राम पर 250 रुपये का शुल्क देकर देश में स्वर्ण का आयात कर सकता था. स्वर्ण बाज़ार ने प्रतिक्रया की : आधिकारिक आयात 1991 में लगभग न के बराबर था, जबकि भारत ने 1992 में आधिकारिक तौर पर 110 टन से अधिक स्वर्ण आयात किया.

लेकिन जल्दबाजी में किसी निष्कर्ष पर पंहुचने से पहले उस समय के इतिहास का गहरा अध्ययन करना ज़रूरी है. उदाहरण के लिए, भारत में स्वर्ण खदान द्वारा भारतीय स्टेट बैंक की शाखाओं में माध्यम से औद्योगिक उद्देश्यों के लिए स्वर्ण की बिक्री चल रही थी. तब तक स्वर्ण – और चांदी – में वायदा कारोबार पर रोक थी. चांदी की ईंट का निर्यात भी प्रतिबंधित था, और चांदी से बने सामानों के निर्यात पर भी कोटा की सीमा तय थी.

विदेशों से आने वाले यात्रियों की निजी संपत्ति के रूप में आने वाले आभूषणों के अलावा, स्वर्ण के आयात के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) की विशेष अनुमति की आवश्यकता थी. कुछ मामलों में ज्वेलर्स को आयातित स्वर्ण से आभूषण तैयार करने की अनुमति तो थी, लेकिन यह केवल निर्यात के लिए था. उन्हें स्वर्ण आभूषण निर्यात प्रोत्साहन सम्पूर्ति योजना के माध्यम से स्वर्ण आपूर्तियों की सम्पूर्ति की अनुमति भी प्राप्त थी.

1992 में अनिवासी भारतीय योजना आरम्भ की गयी, जिसके अंतर्गत छः महीनों से अधिक समय तक विदेश में रहने वाले भारतीयों को उनके सामान में पांच किलोग्राम तक स्वर्ण लाने की अनुमति थी, जो वे परिवर्तनीय मुद्रा, आम तौर पर अमेरिकी डॉलर में सीमा शुल्क अदा करके कर सकते थे. 1994 में सरकार एक विशेष आयात लाइसेंस (एसआइएल) के माध्यम से स्वर्ण आयात वैध करार दिया, जिसके तहत प्रभाकारी रूप से स्वर्ण को एक वस्तु माना गया था.

एसआइएल के अंतर्तात निर्यातकों को अधिकाशतः स्वर्ण खरीदने का अधिकार दिया गया. स्वर्ण बाज़ार के उदारीकरण के लिए दिया गया तर्क इस विचार पर आधारित था कि स्वर्ण के विशेषज्ञ आयातक मार्जिन कम करने में सहायक होंगे और स्वर्ण के मूल्य में प्रतिस्पर्धा आयेगी. इस तर्क का पहले भी इस्तेमाल किया गया था, लेकिन वास्तिवकता कुछ अलग थी. इस पर यह वितर्क हावी हुआ कि स्वर्ण के मौद्रिक निहितार्थ थे और इस तरह इस पर अन्य वस्तुओं से अलग रूप में विचार किया जाना चाहिए.

1997 में, ओपन जनरल लाइसेंस (ओजीएल) के तहत सात बैंकों को स्वर्ण के आधिकारिक आयातक के रूप में अधिकार दिया गया. आगे चल कर वैसे बैंकों की संख्या 20 तक पहुँच गयी. 1999 में सरकार ने स्वर्ण जमा योजना (जीडीएस) के माध्यम से स्वर्ण संगृहीत करने की कोशिश की, जिसे एक निर्धारित ब्याज डर पर स्वर्ण जमा करने की अनुमति देने के लिए भारतीय स्टेट बैंक द्वारा आरम्भ किया गया था. नतीजतन, स्वर्ण की मांग बढ़ गयी, और साथ-साथ मूल्य भी बढ़ा, जो नीति निर्धारकों की सोच के अनुरूप नहीं था. इस सभी के बीच सदियों से स्वर्ण हमें अचंभित कर रहा है.