Published: 15 मार्च 2018

स्वर्ण – अग्नि का बीज

Eternal light of metal gold

अग्नि देवता ने एक बार जल को देखा. सोचा, “क्या इससे मैं जोड़ी बना सकता हूँ?” वह करीब आये और जल से एकाकार हो गए और उनका बीज स्वर्ण हो गया. अग्नि का वीर्य होने के नाते, स्वर्ण आग के समान चमकता है! इसलिए स्वर्ण जल में पाया जाता है, क्योंकि उन्‍होंने स्वयं को इसमें उंडेल दिया था – यह् भी एक कारण है कि कोई इससे खुद को धो नहीं सकता, और न इससे कोई अन्य कार्य कर सकता है. वे यज्ञीय पुरोहितों के लिए दिव्य प्रतिदर्श का काम करते हैं, एक संदेशवाहक जो यज्ञ संपादित कर सकता है, मानव और देवता के बीच मध्यस्थ हो सकता है और देवताओं को यज्ञ में बुला सकता है. अग्नि के प्रसन्न होने पर देवता दयालु हो जाते हैं.

अग्नि हिन्दुओं के देवता हैं, सर्वाधिक महत्वपूर्ण वैदिक देवताओं में से एक. वह सांसारिक चीजों में सबसे पवित्र हैं, क्योंकि जो अन्धकार है, अशुद्ध है, अशुभ है, सभी कुछ उनमे भस्म हो जाता है. चूंकि हर दिन पुनः जलते हैं, अतएव चिरयुवा, उज्जवल और दीप्तिमान हैं. वे अमरत्व, प्रकाश और अग्नि का सांस्कारिक प्रतीक हैं. अमरत्व और जीवन के प्रतीक का जुड़वां विचार रखने के कारण, अग्नि वैदिक अनुष्ठानों के कृष्ट, पक्व और सांस्कृतिक पहलुओं का प्रतिनिधि है.

शुक्ल यजुर्वेद से सम्बंधित इतिहास, वैदिक अनुष्ठानों और पौराणिक कथाओं का वृतांत, शतपथ ब्राह्मण में स्वर्ण का अग्नि के वीर्य के रूप में अनेक स्थानों पर उल्लेख किया गया है. इसमें वेदिका बनाने की विधियों, अनुष्ठान के मंत्रोच्चारों, आनुष्ठानिक वस्तुओं, सोमरस तथा प्रत्येक अनुष्ठान के प्रतीकात्मक पहलू की विस्तृत व्याख्या की गयी है.

इस ग्रन्थ में आश्चर्यजनक रासायनिक महत्व से जुड़ा एक अनुच्छेद है, जल एवं अग्नि के विवाह के बारे में. आश्चर्य की बात है कि यह रसायन विद्या के जन्म से आधी सहस्राब्दी पूर्व लिखा गया था.

शतपथ ब्राह्मण ही में दुसरे रूप में इस कथा का विवरण है, जिसमे कहा गया है कि जब इंद्रा ने त्वश्त्री के पुत्र, विश्वरूप का वध किया था, तब त्वश्त्री ने इंद्र को विस्फोट से खंडित-खंडित कर दिया और “उसके वीर्य से उसकी आकृति प्रवाहित हो गयी और उससे स्वर्ण बना”, एक ऐसा धातु जो निःसंदेह देवता का रूप था. उनलोगों ने स्वयं को स्वर्ण से प्रक्षालित किया. क्योंकि स्वर्ण और अग्नि, दोनों प्रकाश एवं अमरत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं. ग्रन्थ में आगे यज्ञीय अग्नि संपादित करते समय उस वीर्य की चमत्कारिक शक्ति की चर्चा की गयी है. उल्लेख है कि प्रथम सोमरस अर्पित करने के बाद यज्ञीय अग्नि बहिर्गामी हो जाती है, याज्ञिक या तो लकड़ी का एक छोटा टुकडा फ़ेंक सकता है, या यदि उसके मन में भय है, तो वह स्वर्ण अर्पित कर सकता है, एक संदेहरहित अग्नि बीज : क्योंकि पिता और पुत्र, दोनों सदृश हैं.