Published: 12 सितंबर 2017

स्वर्ण का एक संसार : दुनिया भर से स्वर्ण पद्मनाभस्वामी मंदिर कैसे पहुंचा

भारत के भव्य साम्राज्यों और समृद्ध संस्कृति के इतिहास का अवलोकन करते समय हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि एक समय भारत गौरवशाली समुद्री व्यापार का देश भी हुआ करता था. लगभग 7,500 किलोमीटर लंबे समुद्र तट के कारण भारत में एक सुदृढ़ व्यापार व्यवस्था कायम थी जहां भारी खतरों को उठाकर समुद्र के रास्ते व्यापार करने वालों की भरमार थी.

जहां यूरोपीय और पश्चिम के अन्य देशों के लोग भारत के उत्कृष्ट मसालों, सूती कपड़ों और सुघड़ आभूषणों के प्रति लालायित रहते थे, वहीं ऐसा प्रतीत होता है कि पश्चिमी वस्तुओं के साथ अपने सामानों की अदला-बदली करने में भारतीयों की अधिक रूचि नहीं थी. मोल-भाव दुरुस्त करने की मजबूरी में पश्चिमी व्यापारियों को स्वर्ण और चांदी के रूप में अदायगी करनी पड़ती थी.

2011 में जब श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर के खजाने खोले गए, भारतीय मुद्रा में एक लाख करोड़ रुपये से अधिक मूल्य के स्वर्ण एवं अन्य आभूषण पाए गए जिनकी अवधि दो हज़ार वर्षों तक की थी.

उद्भेदित खजाने में रोमन साम्राज्य के लगभग दो हज़ार वर्ष पुराने स्वर्ण मुद्राओं का विशाल भण्डार, 14वीं और 15वीं सदी के सामुद्रिक शक्ति-संपन्न वेनिस की स्वर्ण मुद्राएं, पुर्तगाल के गौरवशाली काल 16वीं सदी की मुद्राएं, डच ईस्ट इंडिया कंपनी के 17वीं सदी के सिक्के, 19वीं सदी के आरंभिक काल के नेपोलियन के स्वर्ण के सिक्के प्रचुर मात्रा में पाए गए. सबसे बढ़कर, गुरचरण दास और गैरी कीथ यंग की पुस्तक – रोम्स ईस्टर्न ट्रेड : इंटरनेशनल कॉमर्स ऐंड इम्पीरियल पालिसी, 31 ईसा पूर्व-305 ईस्वी में अभिलेखों के आधार पर किये गए उल्लेख के अनुसार रोमन राजनेता और इतिहासकारों ने इस बात की आलोचना की है कि रोम के व्यापारियों ने केवल अपनी पत्नियों को खुश करने के लिए भारतीयों से मसाले और रेशम खरीदने के बदलले स्वर्ण लुटा दिया. इस विधि से समुद्री व्यापार के रास्ते स्वर्ण हमारे समुद्र तटों पर पहुंचा और दक्षिण भारत के समृद्ध तटीय शहरों में बड़े पैमाने पर संचित होता गया.

लेकिन इस मंदिर में इतना स्वर्ण कैसे जमा हो गया?

दक्षिणी भूभाग में विष्णु मंदिर धार्मिक, आर्थिक एवं सामाजिक जीवन का केंद्र माना जाता था. असल में, 1741 में कोलाचेल के युद्ध में डच सेना को पराजित करने के बाद राजा मार्त्तंड वर्मा ने भगवान् विष्‍णु की श्रद्धा में अपने सम्पूर्ण राज्य के साथ-साथ अपना सारा खजाना तत्कालीन छोटे मंदिर में दान कर दिया.

उसके बाद से अनेक दशकों तक व्यापारी, जमींदार और राजाओं ने इस मंदिर को भरपूर दान दिया. उन्हें ढेर के ढेर स्वर्ण और दूसरे बहुमूल्य वस्तुएं दान करने में आनंद मिलता था. विभिन्न काल-खण्डों में इन दान को न केवल पुण्य लाभ ‘धार्मिक कर्त्तव्य’ माना रहा, बल्कि ऐसा करने से लोगों के बीच उनका सम्मान भी बढ़ता था. इसकी एक दीर्घकालीन परम्परा चल पडी जिसके फलस्वरूप श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर विश्व का सबसे समृद्ध धार्मिक केंद्र बन गया.