Published: 01 सितंबर 2017

सोना से शीशे में नीलम की लालिमा आती है

अगर आप यूरोप में मध्यकालीन गिरिजाघरों को देखने जा रहे हैं तो रंगीन शीशे की खिडि़कियाँ देखना नहीं भूलें जो अपने-आप में उत्कृष्ट कलाकृतियाँ हैं। उनमें कहीं-कहीं पर अति सूक्ष्म स्वर्ण कण होते हैं जो लाल शीशे में आभा उत्पन्न करते हैं। नैनोटेक्नोलॉजी (अतिसूक्ष्म प्रौद्योगिकी) अपेक्षाकृत एक नया विज्ञान है और इसका प्रमुख सिद्धान्त विगत आधी सदी के दौरान विकसित हुआ है। फिर भी मानव जाति द्वारा लगभग एक हजार वर्षों से नैनोटेक्नोलॉजी का प्रयोग किया जा रहा है।

इतिहास में नैनोटेक्नोलॉजी के सर्वाधिक प्रमाणिक उदाहरणों में से एक वह है जिसे मध्यकाल में रंगीन शीशा बनाने वालों द्वारा प्रयोग किया जाता था। वे प्रथम नैनोटेक्नोलॉजिस्ट थे, जैसा कि उनलोगों ने ‘शीशे के सांचे’ में सोने के अतिसूक्षण अणुओं का जाल बुना था ताकि खिड़कियों में नीलम की लालिमा की आभा उत्पन्न की जा सके।

सदियों से स्वर्ण लवण या कोलाइडल सोना को गर्म, तरल शीशे (पिघला हुआ शीशा) में मिलाकर क्रैनबेरी ग्लास (करौंदे के रंग का शीशा) या ‘गोल्ड रूबी’ शीशे का निर्माण किया जाता रहा था। रंगीन शीशे में स्वर्ण की उपस्थिति के कारण यह महँगी सजावट में इस्तेमाल होने वाली विलासिता की वस्तु बन गया। शीशे पर स्वर्ण का प्रभाव काफी महत्वपूर्ण है, भले ही बढि़या और नीलम के रंग का शीशा उत्पादित करने के लिए इसकी काफी न्यून सांद्रता (लगभग 0.001%) की आवश्यकता होती है। न्यून सांद्रता में भी यह मद्धिम लालिमा उत्पन्न करता है जिसे अक्सर ‘क्रैनबेरी ग्लास’ के रूप में बेचा जाता है।

स्वर्ण और शीशे का मूल्य सामान्यतया इतना अधिक था कि निर्माताओं द्वारा इसे भारी मात्रा में बनाने के बजाए कारीगरों द्वारा, साधारण हैंड-ब्लोन या ढलाई विधि से तैयार किया जाता था। कहा जाता है कि गोल्ड रूबी ग्लास (स्वर्णाभ नीलम शीशा) की खोज सबसे पहले तब हुई थी जब एक यूरोपीय रईस ने सोने के सिक्के को पिघले शीशे के घोल में डाल दिया था। दुर्भाग्य से यह पूरी तरह सच नहीं है, क्योंकि सोने को पहले अक्वा रीजिया यानी हाइड्रोक्लोरिक और नाइट्रिक एसिड के मिश्रण में घुलाया जाता है।

आजकल नए-नए ढंग से स्वर्ण का प्रयोग न केवल शीशा में रंग भरने के लिए बल्कि शीशा होकर हानिकारक पराबैंगनी किरणों का प्रवेश रोकने के लिए एक परावर्ती परत के रूप में भी बदस्तूर जारी है। निर्माताओं द्वारा स्वर्ण अणुओं को विंडो फिल्म में या सीधे शीशे में अंतःस्थापित कर दिया जाता है। इससे पराबैंगनी विकिरण और चमक में कमी आती है, फिर भी गर्मी प्रवेश कर सकती है। पराबैंगनी विकिरण में कमी विशेषकर घरों के लिए उपयोगी है क्योंकि परावर्ती शीशे फर्नीचर, फर्श, परदों और कलात्मक वस्तुओं को मलीन होने से रोकने में मददगार होते हैं।

शीशे में स्वर्ण का प्रयोग गर्म जलवायु वाले क्षेत्रों में, जैसा कि भारत के अनेक हिस्सों की जलवायु है, सौर उष्मा में कमी और अंदरूनी तापमान कम रखने के लिए किया जाता है।