Published: 28 अगस्त 2017
स्वर्ण से सम्मानित - राजराजेश्वर मंदिर
![](/sites/default/files/styles/single_image_story_header_image/public/Honoured%20with%20gold%20-%20Rajarajeshwara%20temple_0.jpg?itok=32kXFquT)
मंदिरों में दान करना प्राचीन काल से भारतीय परंपरा में सामान्य व्यवहार रहा है। भक्तगण अपनी धार्मिक मान्यताओं का अनुसरण करते हुए, अपने प्रिय देवी-देवताओं को नगद या स्वर्ण का दान करते हैं। तथापि राजराजेश्वर का मंदिर अपने विशिष्ट एवं असाधारण अनुष्ठानों के कारण भारत में अन्य मंदिरों से अलग है।
भगवान शिव का राजराजेश्वर मंदिर अलग-अलग क्षेत्रों में उत्कृष्ट योगदान के लिए प्रमुख व्यक्तियों को वीरश्रृंगला पुरस्कार प्रदान करने के लिए प्रसिद्ध है।
वीरशृंगला सोने के कंगन के आकार का होता है। प्रचलित तौर पर इनका भार 40 ग्राम होता है और इन पर राजवंश की मुहर लगी होती है। पुरस्कार प्राप्तकर्ता का चयन मंदिर से संबद्ध प्रमुख विद्वानों द्वारा किया जाता है और राजपरिवार के किसी सदस्य - सामान्यतया राजा - द्वारा पुरस्कार दिया जाता है।
राजराजेश्वर के इस पावन मंदिर के प्रधान पुजारी ने अनेक व्यक्तियों को वीरशृंगला प्रदान किया है। सुविख्यात कलाकार एवं साधक स्वर्गीय गुरु मणि माधव चक्यार इस आध्यात्मिक मंदिर से वीरशृंगला पाने वाले सबसे कनिष्ठ और अंतिम व्यक्ति हैं।
राजराजेश्वर (राजाधिराज) भगवान शिव के वर्तमान 108 प्राचीन मंदिरों में से एक है। मंदिर का शिखर अपने समय में सबसे ऊँचा था जिसमें दो विशाल सात-मंजिला गोपुरम हैं। अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में टीपू सुल्तान ने अपनी सेना के साथ इस प्राचीन मंदिर का आंशिक विनाश कर दिया था।
अभी यह मंदिर केरल की परंपरागत वास्तुशिल्प शैली की संरचना में गिना जाता है और इसे स्वर्ण से सजाया गया है। मंदिर के शीर्ष पर भव्य स्वर्ण कलश (गुम्बद) के माध्यम से दूर से ही देवता के दर्शन हो जाते हैं।
ज्योर्तिलिंगम या शिवलिंग भगवान राजराजेश्वर (शिव) का प्रतिनिधत्व करता है और यह भक्तों द्वारा अर्पित फूलों, बेल पत्र आदि से आच्छादित रहता है। ज्योर्तिलिंगम का आधार स्वर्णफलक से आच्छादित है, जिस तरह कि इसका गोलक (शिखर) स्वर्णाच्छादित है। बिना सजावट वाले पवित्र लिंग को दिन में केवल दो अवसरों पर देखा जा सकता है - प्रातः 5:30 बजे पुजारियों द्वारा प्रथम अभिषेक हेतु लिंग की तैयारी वाले निर्मलयम के समय और रात्रिकालीन 9:30 बजे नवकाभिषेकम के समय जब सजावट हटाई जाती है।
इसके अतिरिक्त उत्सवमूर्ति या बालीबिम्बम ज्योर्तिलिंगम का प्रतिनिधित्व करता है और केवल विशेष अवसरों पर ही दर्शन के लिए उपलब्ध होता है। उत्सवमूर्ति एक अलंकृत स्वर्ण फलक से आच्छादित है और महोत्सव के लिए स्वर्णाभूषणों से इसका शृंगार किया जाता है।
परंपराओं के अतिरिक्त राजराजेश्वर मंदिर में निष्ठापूर्वक ‘घृतदीप’ प्रज्ज्वलित किया जाता है जिसे हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार पहली बार अगस्त्य महर्षि ने प्रज्ज्वलित किया था। भक्तगण लिंग पर घृत (घी) या मांगलिक घृतदीप का चढ़ावा भी अर्पित करते हैं। इन दीपों को प्रायः एक स्वर्ण कलश में रखकर अर्पित किया जाता है और भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए गर्भगृह के प्रवेशद्वार की सीढि़यों पर प्रज्जवलित किया जाता है।