Published: 12 सितंबर 2017

स्वर्ण कैसे निकाला जाता है ?

हम सभी जानते हैं कि स्वर्ण खानों से आता है. स्वर्ण की ये खानें पृथ्वी की सतह से सैकड़ों मीटर नीचे होतीं हैं. इसी गहराई में खनिकों को प्राकृतिक स्वरुप में – परत या बहते नालों के रूप में - स्वर्ण मिलता है. इन स्थानों में चट्टानों की दरारों के बीच अन्य धातुओं के साथ स्वर्ण संकेंद्रित रहता है.

स्वर्ण निकालने के लिए कुशलतापूर्वक खुदाई की जाती है और चट्टानों को तोड़ा जाता है. खुदाई के पहले इंजिनियरों एवं भूगर्भशास्त्रियों द्वारा काफी तैयारी की जाती है और चट्टानों के बीच स्वर्ण के सटीक स्थान का पता लगाया जाता है. इसके फलस्वरूप खनिकों को स्वर्ण से भरी चट्टानों को निकालने में आसानी होती है, जिन्हें अयस्क कहा जाता है. इसके बाद अयस्क को मिल में भेजा जाता है जहां अयस्क से स्वर्ण निकाला जाता है. अगर सर्वेक्षण सही हो तो प्रत्येक 1000 किलोग्राम अयस्क से बहुत हुआ तो 6.5 ग्राम स्वर्ण मिल सकता है. है न सोचने वाली बात!

स्वर्ण अयस्क शुद्ध नहीं होता. इसमें चांदी और अन्य धातु मिले रहते हैं. कारखाने में अयस्क के बड़े-बड़े चट्टानों को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ कर स्वर्ण, चांदी और चट्टान मिश्रित चूर्ण बनाया जाता है. इसके बाद इसमें भरपूर पानी और सायनाइड मिलाकर लुगदी बनने तक पीसा जाता है और जमने के लिए बड़ी-बड़ी टंकियों में छोड़ दिया जाता है. यहीं इसके शोधन का पहला चरण आरम्भ होता है जिसमे गुरुत्वाकर्षण शक्ति की बड़ी भूमिका होती है. कीचड में मौजूद अधिक भारी कण तरल से अलग होकर टंकी की पेंदी में बैठ जाते हैं. इस कीचड़ जैसे मिश्रण में हवा के बुलबुले छोड़े जाते हैं और हवा की ऑक्सीजन उत्प्रेरक के रूप में क्रिया करके एक रासायनिक प्रतिक्रया आरम्भ करती है. इस रासायनिक प्रतिक्रया में अयस्क में फंसे स्वर्ण के साथ सायनाइड परस्पर क्रिया करता है जिसके कारण स्वर्ण निकल कर पानी में घुल जाता है. इस तरह अंत में स्वर्ण और पानी का घोल बच जाता है.

इस घोल को सावधानीपूर्वक निकाल कर एक घुमते हुए बेलन की सतह पर बूँद-बूँद चुलाया जाता है. बूँदें बेलन की सतह पर फिसलती जातीं हैं और पीछे घोल की पतली परत बनती जाती है जो तेजी से वाष्प बन कर उड़ जाती है. और अंत में स्वर्ण की सुन्दर पतली परत बन जाती है.

इसके बाद उत्प्रेरकों और अभिकर्मकों के प्रयोग से अनेक रासायनिक अभिक्रियाओं के द्वारा स्वर्ण से बाकी बची अशुद्धियों को निकाला जाता है और 1600 डिग्री सेंटीग्रेड (2912 डिग्री फारेनहाईट) तक गर्म किया जाता है. इस प्रक्रिया में गुरुत्वाकर्षण शक्ति उत्पन्न होने के पहले स्वर्ण और अन्य अशुद्धताएं पिघल जातीं हैं. इस प्रक्रिया में अधिक भारी और पिघली हुयी अशुद्धियाँ पेंदी में बैठ जातीं हैं, जबकि हल्का और पिघला हुआ स्वर्ण ऊपर तैरने लगता है. यह वैसे ही है जैसे कि घनत्व के कारण पानी के ऊपर तेल तैरता है.

अंत में, पिघले हुए स्वर्ण को निकाल कर और ठंढा कर छड़ों का आकार दिया जाता है. स्वर्ण को ठोस आकार ग्रहण करने में 4 मिनट लगते हैं और जिसके बाद इसे शीतल जल में एक घंटे तक ठंढा किया जाता है. स्वर्ण की ये छडें या सिल 80% शुद्ध होते हैं.

शुद्ध स्वर्ण उत्पादित करने वाली शोधशालाओं में पिघला कर साफ करने की प्रक्रिया तब तक बार-बार दोहराई जाती है, जब तक कि 99.5% शुद्धता नहीं आ जाती. इसके बाद विद्युत अपघटन (इलेक्ट्रोलिसिस) के द्वारा शुद्ध करके 99.9% शुद्धता प्राप्त की जाती है. यही मानक शुद्धता होती है जिसकी चाहत हम सभी करते हैं.